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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - चतुर्थ प्रश्नपत्र - अनुसंधान पद्धति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2696
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - चतुर्थ प्रश्नपत्र - अनुसंधान पद्धति

अध्याय - 2

अनुसन्धान विधियाँ एवं अनुसन्धान प्रक्रिया / प्रकार

(Research Methods and Procedures/ Types of Research)

 

प्रश्न- 'ऐतिहासिक उपागम' से आप क्या समझते हैं? इस उपागम (पद्धति) का प्रयोग कैसे तथा किन-किन चरणों के अन्तर्गत किया जाता है? इसके अन्तर्गत प्रयोग किए जाने वाले प्रमुख स्रोत भी बताइए।

अथवा

ऐतिहासिक अनुसन्धान का अर्थ व महत्व बताइये।

अथवा

ऐतिहासिक अनुसन्धान का अर्थ व उपयोगिता बताइए।

उत्तर -

ऐतिहासिक अनुसन्धान पद्धति
(Historical Method)

इतिहास शब्द का उद्गम 'Historia' शब्द से हुआ है, जिनका मूल अर्थ होता है सीखना या खोज द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान। प्राचीनकाल में मानव इतिहास के अन्तर्गत भूतकालीन घटनाओं का खोजपूर्ण अध्ययन होता था। एक इतिहासकार का यह कार्य होता है, कि वह भूतकाल की घटनाओं के विषय में सामग्री एकत्रित करे तथा उनकी सही व समुचित व्याख्या करे।

आधुनिक युग में इतिहास के विषय में नया दृष्टिकोण यह है कि यह एक दिये हुए मानव समाज व सांस्कृतिक बिशेष की संस्थाओं को दृष्टिगत रखते हुए मानव घटनाओं के विषय में सत्य विवरण प्रदान करे। सत्य तो यह है कि कोई भी घटना सामाजिक शून्य (Social Vacuum) में नहीं होती। अब ऐतिहासिक पद्धति का उद्देश्य भूतकाल और सामाजिक शक्तियों के विषय में अनुसन्धान कर सिद्धान्तों को निरूपित करना हो गया है। अब यह माना जाने लगा है कि वास्तविक इतिहास में केवल राजों, महाराजों और युद्धों का ही उल्लेख नहीं होना चाहिये, अपितु उन सभी सामाजिक, साँस्कृतिक संस्थाओं और गतिविधियों का उल्लेख तथा सही विवचेन होना चाहिए जिन्होंने भूतकाल में समाज की रचना करने या उसको गतिशील बनाने में प्रयत्क्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कार्य किया था। आधुनिक युग में इस प्रकार के इतिहास के निर्माण के लिए प्रो० टॉयन्बी, रोस्टोटजेब, कोल्टन व जैकोब बरखर्डच (Toynbey, Rostovtzeb, Coulton, Jacob Burkhardt) प्रेरक बने हैं, क्योंकि इनकी यह मान्यता रही है कि इतिहास को मानवीय सम्बन्ध, सामाजिक प्रतिमानों, जनरीतियों व प्रथाओं और समाज की अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं से सम्बन्धित रहना चाहिये। इतिहास व समाजविज्ञान इस समान उपागम के

फलस्वरूप अत्यन्त निकट आते जा रहे हैं और समाजविज्ञान में 'ऐतिहासिक समाज विज्ञान' (Historical Sociology) नामक अध्ययन शाखा के विकास का जिसके प्रमुख विद्वान सिगमंड व डायमंड विरबाय रोबर्ट बैल्लाह, रेमन्ड आइरन आदि हैं। प्रो० ब्रिग्ज के अनुसार सामाजिक इतिहासकारों व ऐतिहासिक दृष्टिकोण वाले समाज वैज्ञानिकों में अब कोई अन्तर नहीं रहा है। भारत के सुप्रसिद्ध इतिहासकार व दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक डा० रोमिला थापर (Romila Thapar) ने इतिहास के इस नये उपांगम की, जिसे अब भारत में भी अपनाया जाने लगा है, इन शब्दों में व्याख्या की है। "हमने अवश्य ही इतिहास लेखन का नया दृष्टिकोण विकसित कर लिया है। पहले हमारा सम्बन्ध राजनैतिक इतिहास से था। इसलिये हम एक ही कालविधि को बार-बार देखते थे। अब इतिहासकार घटनाओं के मध्य परस्पर सम्बन्ध में रुचि रखते हैं। पुराना इतिहास घटना का एक विवरणमात्र था। पहले मानव क्रिया को छिन्न-भिन्न करने की पद्धति चलती थी। हम ऐसा नहीं कर सकते जबकि हम जनता का इतिहास लिख रहे हों। हमको राजनैतिक इतिहास से हटकर सामाजिक व आर्थिक इतिहास में प्रविष्ट होना चाहिये।" प्रो० जे० पैट्रीसीनिया डी० सूजा (J. Patricinio D Souza) ने भी ठीक ही लिखा है कि महत्वपूर्ण होने के लिए सामाजिक इतिहास को सामाजिक परिवर्तन तथा उसको लाने वाले विभिन्न कारकों का एक अध्ययन होना चाहिये।"

स्पष्ट है कि इतिहास अब केवल भूतकालीन किस्से-कहानियों तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि आज के वैज्ञानिक युग में इसकी विवरणात्मक प्रकृति को भी विश्लेषण रूप प्रदान किया जा रहा है। अब इसके अन्तर्गत, विभिन्न घटनायें घटित होने की परिस्थितियाँ, उनके परिणाम, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक-सांस्कृतिक तथा राजनैतिक क्षेत्रों में हुए परिवर्तन तथा भविष्य में सम्भव हो सकने वाली रूपरेखा इत्यादि का अध्ययन किया जाने लगा है। लेकिन भूतकालीन समाज के विस्तृत तथा गहन अध्ययन, अतीत के महत्वपूर्ण तथ्यों और घटनाओं, उनके सन्दर्भ में वर्तमान समाज की जानकारी, समाज को प्रभावित करने वाले तत्वं या कारक तथा इनके विश्लेषण, इत्यादि के लिये किसी पद्धति की आवश्यकता पड़ती है। यह पद्धति ऐतिहासिक पद्धति ही है। इस पद्धति को परिभाषित करते हुए श्रीमति यंग ने बताया है कि "वह प्रणाली जो ऐसे भूतकालीन सामाजिक तत्वों तथा प्रभावों की, जिन्होंने 'वर्तमान' को रूप प्रदान किया है, खोज करके आगमन विधि के आधार पर कुछ सिद्धान्तों का निर्माण करती है, ऐतिहासिक पद्धति मानी जाती है। "

ऐतिहासिक पद्धति का अनुकरण करने वाले व्यक्ति को निम्नांकित दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए-

(1) अति सरल (Over Simplification) अर्थात् बहुत अधिक सरल सम्बन्धों को ढूँढने व सरल ढंग में तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास करना।
(2) अति सामान्यीकरण (Over generalization) अथवा बहुत अधिक सामान्यीकारण की प्रवृत्ति प्रदर्शित करना।
(3) पूर्व समय में प्रचलित शब्दों की व्याख्या न कर पाना (Failure to interpret terms prevent in the past)!
(4) महत्वपूर्ण व अमहत्वपूर्ण तथ्यों के बीच अन्तर न कर पाना (Failure to distinguish between significant and insignificant facts)!
(5) कल्पनात्मक इतिहास (Conjunctural History) बनाने का प्रयास करना।

ऐतिहासिक सामग्री के स्रोत
(Sources of Historical Materials)

 

ऐतिहासिक पद्धति की द्वारा किसी अध्ययन को पूर्ण करने की दृष्टि से जिस सामग्री की आवश्यकता पड़ती है, उसे कुछ स्रोतों से प्राप्त करना पड़ता है।

श्रीमती यंग ने ऐतिहासिक स्रोतों को तीन भागों में विभाजित किया है-

(i) इतिहासकार की पहुँच के भीतर प्राप्त प्रलेख तथा विवधि सामग्री,
(ii) साँस्कृतिक इतिहास तथा विश्लेषण इतिहास सामग्री,
(iii) विश्वसनीय अवलोकन कर्त्ताओं तथा गवाहों के निजी स्रोत।

(i) प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत प्राप्त होने वाले प्रलेखों में वेद, पुराण, स्मृतियाँ, उपनिषद इत्यादि ग्रंथ सम्मिलित किये जा सकते हैं तथा खुदाई के फलस्वरूप प्राप्त वस्तुएं, अजन्ता, एलोरा तथा खजुराहो इत्यादि की गुफाओं के लेख भी महत्वपूर्ण स्रोत बन सकते हैं।

(ii) द्वितीय श्रेणी के अन्तर्गत् सांस्कृतिक या विश्लेषणात्मक इतिहास किसी भी काल या युग में किसी समाज की साँस्कृतिक स्थिति का बोध कराता है तथा उसके विभिन्न साँस्कृतिक तत्वों के स्वरूप एवं उनमें विकास तथा परिवर्तन की ओर ध्यान दिलाता है।

(iii) तृतीय श्रेणी के अन्तर्गत, समय-समय पर व्यक्तिगत इतिहासकारों ने अपनी यात्राओं या पर्यटनों द्वारा जो अवलोकन या निरीक्षण किये हैं और ऐतिहासिक विवरणों के रूप में प्रस्तुत किये हैं, ऐसी सामग्री को सम्मिलित किया जा सकता है।

इस प्रकार की सूचनायें या सामग्री हमें आज भी भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन या विभिन्न राज्यों के संग्रहालयों में देखने तथा अध्ययन करने को उपलब्ध हो सकती हैं। यही कारण है कि प्रायः ऐतिहासिक पद्धति को ही संग्रहालय पद्धति के नाम से जाना जाता है।

ऐतिहासिक पद्धति के चरण
(Stages of Historical Method)

ऐतिहासिक पद्धति के निम्नांकित चरण हैं जिनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है-

(1) समस्या का चुनाव अध्ययन - समस्या इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे भूतकालीन समाज के वास्तविक स्वरूप को यथासम्भव यथार्थ रूप से समझा जाना आवश्यक हो तथा उसके आधार पर वर्तमान दशाओं तथा उनमें हुए परिवर्तनों को ज्ञात किया जा सके और भविष्य की प्रवृत्ति का अनुमान लगाना सम्भव हा। उस पर लगने वाले समय, धन व स्वयं की लागत का सही अनुमान लगाने के उपरान्त ही किसी समस्या को चुना जा सकता है।

(2) तथ्य संकलन - तथ्यों के संकलन में उनकी प्रकृति तथा उपलब्ध स्रोतों पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। अध्ययनकर्ता की अपने योग्यता, प्रशिक्षण तथा अनुभव भी उसकी कुशलता में सहायक होते हैं। सरकारी तथा गैर सरकारी प्रलेखों का उचित प्रकार से प्रयोग किया जाना चाहिए। अनावश्यक सामग्री की छटनी कर देनी चाहिए।

(3) ऐतिहासिक आलोचना - बाह्य आलोचना का अर्थ है कि जो भी प्राथमिक या द्वितीय स्रोत उपलब्ध हो पाये हैं उनकी प्रमाणिकता अथवा वास्तविकता की जाँच की जाये कि कही सामग्री झुंटी या जाली तो नहीं है। आन्तरिक आलोचना के अन्तर्गत यह देखना आवश्यक होता है कि किसी भी स्रोत का लेखक कितना सच्चा रहा है? क्या उसने किसी पक्षपात अभिनति या अज्ञान के वशीभूत होकर तो नहीं लिखा है? क्या उसने घटना विशेष के घटित होते ही लिखा है या बाद में, उसके सूचनादाता कौन रहे हैं और किस प्रकार उसको सूचना प्राप्त हुई और कहाँ तक सूचना को सार्थक माना जाना चाहिये?

(4) साम्रगी की व्याख्या - संकलित की गई सामग्री की उपयुक्त आलोचना के उपरान्त उसकी व्याख्या का चरण आता है। अध्ययनकर्ता किन-किन तथ्यों के आधार पर किन-किन निष्कर्षो पर पहुँचता है, यह स्पष्टतः बतलाना होता है। इस प्रकार की व्याख्या करने के लिये अध्ययनकर्त्ता को बहुत ही कुशलता व बारीकी से कार्य करना पड़ता है।

(5) प्रतिवेदन - निर्माण प्रतिवेदन के निर्माण में अध्ययनकर्ता को ठीक उसी प्रकार कार्य करना होता है जैसे कि समाजशास्त्र का कोई भी अध्ययनकर्ता अपने अध्ययन के प्रतिवेदन को बनाने में करता है। प्रतिवेदन में उपयुक्त शीर्षकों को तथा अनुच्छेदों के अन्तर्गत सामग्री को आकर्षित ढंग से प्रस्तुत करना चाहिये। लिखने की शैली सरल, स्पष्ट, रोचक व वस्तुनिष्ठ होनी चाहिये। सभी महत्वपूर्ण सामग्री, अन्य व्यक्तियों के महत्वपूर्ण कथन आदि को संलग्न पत्रों के रूप में लगाना चाहिये। आवश्यक प्रालेख, रेखाचित्र, मानचित्र, फोटोग्राफ आदि को भी उचित ढंग से लगाना चाहिये।

ऐतिहासिक पद्धति के गुण
(Merits of Historical Method)

ऐतिहासिक पद्धति समाजशास्त्र की एक विशिष्ट एवं उपयोगी पद्धति है। इस पद्धति के प्रयोग के महत्व को निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है-

(1) परिवर्तन के स्वरूप को जानना - ऐतिहासिक पद्धति से हमें यह भी ज्ञान प्राप्त होता है कि समाज एवं संस्कृति में समय-समय पर कौन-कौन से परिवर्तन होते हैं, कौन-कौन सी घटनायें घटित होती रही हैं तथा उनका वर्तमान स्वरूप कया है? वस्तुत: यह पद्धति परिवर्तन एवं विकास की प्रकृति की ओर संकेत करती है एवं कार्य-कारण सम्बन्ध भी स्थापित करती है।

(2) भूतकाल के महत्व को जानना - इतिहास को भूतकालीन अनुभवों तथा वर्तमान मनोवृत्तियों एवं मूल्यों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने वाली श्रृंखला माना जा सकता है। इससे हम अतीत की परम्पराओं, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, आदर्शों एवं मूल्यों तथा संस्थाओं आदि की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। ऐतिहासिक पद्धति से प्रत्येक लम्बे इतिहास वाले समाज की सही जानकारी प्राप्त होती है।

(3) उपकल्पनाओं का निर्माण - यह विधि उपकल्पनाओं का भी स्रोत हैं। जब एक अध्ययनकर्त्ता अध्ययन की जा रही घटना के सन्दर्भ में ऐतिहासिक सामग्री का संकलन करता है तो उसे अनेक नवीन तथ्यों का विभिन्न तथ्यों में सम्बन्धों का पता चलता है, जिसके आधार पर वह उपकल्पनाओं का निर्माण करता है।

(4) वर्तमान समाज को समझना - इस पद्धति से हमें उन सामाजिक शक्तियों का परिचय प्राप्त होता है जो समाज के वर्तमान स्वरूप को अतीत पर आधारित करती हैं। दूसरे शब्दों में यह पद्धति अतीत के माध्यम से वर्तमान को समझने में लाभदायक होती हैं।

( 5 ) इतिहास की व्यावहारिक उपयोगिता - ऐतिहासिक पद्धति की सामग्री सामाजिक स्थितियों, मानव समस्याओं तथा उनके विकास एवं वर्तमान स्थिति के जानने के लिये भी उपयोगी सिद्ध होती है। यह समाज के पुनर्निर्माण के लिये, वर्तमान समस्याओं पर इसका प्रभाव देखने और इनके सुधारों की आवश्यकता जानने हेतु तथा सामाजिक नियोजन एवं उन्नति हेतु बुद्धिमत्तापूर्ण आधार बनाती है।

(6) द्वैतीयक स्त्रोत के रूप में - वस्तुत ऐतिहासिक प्रलेख केवल कुछ पीढ़ियों तक ही नहीं, वरन् कितनी ही शताब्दियों तक की घटनाओं को प्रदर्शित करते हैं। ये अधिकांश रूप में सामाजिक शोध के विद्यार्थियों को द्वैतीयक सूचनाओं के प्रयोग करने में, जो इतिहास की ही एक व्याख्या है, सहायक होते हैं।

ऐतिहासिक पद्धति के दोष
(Demerits of Historical Method)

ऐतिहासिक पद्धति उपयोगी होते हुये भी प्रायः अनुपयुक्त पाई जाती है। इसके प्रमुख दोष निम्नांकित हैं-

(1) बिखरे हुये प्रलेख - इस विधि के अर्न्तगत अध्ययन हेतु जो सामग्री चाहिये, वह प्रायः एक साथ एक ही स्थान पर नहीं मिल पाती। इन आवश्यक तथ्यों को बिखरे हुये स्थानों से एकत्रित करने में अधिक समय व धन व्यय होता है। इस सबके बावजूद भी पूर्ण सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती है।

(2) सत्यापन की कठिनाई - इस विधि के माध्यम से अतीत की घटनाओं की जांच या उनका सत्यापन करना भी कठिन होता है। श्रीमती यंग के अनुसार, “अनुसंधाकर्त्ता समस्त ऐसी ऐतिहासिक सामग्री का जो सामाजिक स्थितियों तथा संस्थाओं का निर्माण करती है: परीक्षण और जाँच नहीं करता है। ज्यादा से ज्यादा, वह केवल कुछ ऐसी घटनाओं का अध्ययन कर सकता है जो उसके अध्ययन के अन्तर्गत विश्वासों, व्यवहार प्रतिमानों तथा प्रथाओं से सम्बन्धित हैं।"

(3) घटनाओं की पुनरावृत्ति असम्भव - इस विधि के अन्तर्गत जिन घटनाओं एवं तथ्यों का अध्ययन किया जाता है, वे सभी अतीत से सम्बन्धित होते हैं। अध्ययनकर्ता को इनके अध्ययन की सहायतार्थ द्वैतीयक सामग्री, प्रलेख व रिकार्ड आदि पर निर्भर रहना पड़ता है। उसके समक्ष उक्त घटनाओं की पुनरावृत्ति भी असम्भव होती है।

(4) विश्वसनीयता की समस्या - वस्तुतः स्वयं इतिहासकारों को एक ही स्थान तथा समय पर घटित होने वाली समस्त घटनाओं की पूर्ण जानकार नहीं होती। फिर इतिहासकार ऐसी बहुत सी बातें भी छोड़ देते हैं, जो समाजशास्त्री के लिये बहुत आवश्यक हो सकती हैं। ऐतिहासिक तथ्य जिन स्रोतों से एकत्रित किये जाते हैं, उनके संकलन कर्त्ताओं के प्रति भी पूर्ण विश्वसनीयता उत्पन्न नहीं हो पाती।

(5) केवल वर्णनात्मक अध्ययन - इस विधि के अन्तर्गत केवल घटनाओं का वर्णन ही किया जा सकता है, विश्लेषण नहीं। लेकिन हम देखते हैं कि आधुनिक युग में समाजशास्त्र में वर्णनात्मक अध्ययनों की महत्ता निरन्तर कम होती जा रही है। इस विधि द्वारा हम गणनात्मक आंकड़ों का संकलन नहीं कर सकते।

(6) ऐतिहासिक सामग्री के संकलन में कठिनाई - अतीत की घटनाओं से सम्बन्धित होने के कारण अनेक बार ऐतिहासिक सामग्री भी सरलतापूर्वक उपलब्ध नहीं हो पाती है। बहुत से सरकारी एवं गैर-सरकारी दस्तावेज ऐसे होते हैं जिन्हें अनुसन्धानकर्ता नहीं देख सकता।

(7) सैद्धान्तिक नियमों की स्थापना सम्भव नहीं - मात्र विशिष्ट घटनाओं के अध्ययन में सहायक होने के कारण यह विधि सैद्धान्तिक नियमों की स्थापना करने में असमर्थ है। इस विधि के अन्तर्गत क्योंकि ऐतिहासिक सामग्री की प्रामाणिकता की जाँच करनी कठिन होती है, अतः सैद्धान्तिक नियमों के निर्माण में इससे भी बाधा पड़ती है।

(8) सुरक्षा का दोषपूर्ण होना - यह सही है कि पुरातत्व विभाग के अभिलेखागार प्रलेखों तथा रेकार्ड को पर्याप्त मात्रा में संकलित करते हैं, प्रायः इस संकलित सामग्री का अत्यन्त लापरवाही से रखा जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि दीमक, चूहों तथा नमी आदि से उक्त सामग्री की बहुत हानि हो जाती है। अधिक पुराने होने पर ये गल जाते हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- अनुसंधान की अवधारणा एवं चरणों का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- अनुसंधान के उद्देश्यों का वर्णन कीजिये तथा तथ्य व सिद्धान्त के सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए।
  3. प्रश्न- शोध की प्रकृति पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- शोध के अध्ययन-क्षेत्र का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वैज्ञानिक पद्धति' क्या है? वैज्ञानिक पद्धति की विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  6. प्रश्न- वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरणों का वर्णन कीजिए।
  7. प्रश्न- अन्वेषणात्मक शोध अभिकल्प की व्याख्या करें।
  8. प्रश्न- अनुसन्धान कार्य की प्रस्तावित रूपरेखा से आप क्या समझती है? इसके विभिन्न सोपानों का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- शोध से क्या आशय है?
  10. प्रश्न- शोध की विशेषतायें बताइये।
  11. प्रश्न- शोध के प्रमुख चरण बताइये।
  12. प्रश्न- शोध की मुख्य उपयोगितायें बताइये।
  13. प्रश्न- शोध के प्रेरक कारक कौन-से है?
  14. प्रश्न- शोध के लाभ बताइये।
  15. प्रश्न- अनुसंधान के सिद्धान्त का महत्व क्या है?
  16. प्रश्न- वैज्ञानिक पद्धति के आवश्यक तत्त्व क्या है?
  17. प्रश्न- वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ लिखो।
  18. प्रश्न- वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरण बताओ।
  19. प्रश्न- गृह विज्ञान से सम्बन्धित कोई दो ज्वलंत शोध विषय बताइये।
  20. प्रश्न- शोध को परिभाषित कीजिए तथा वैज्ञानिक शोध की कोई चार विशेषताएँ बताइये।
  21. प्रश्न- गृह विज्ञान विषय से सम्बन्धित दो शोध विषय के कथन बनाइये।
  22. प्रश्न- एक अच्छे शोधकर्ता के अपेक्षित गुण बताइए।
  23. प्रश्न- शोध अभिकल्प का महत्व बताइये।
  24. प्रश्न- अनुसंधान अभिकल्प की विषय-वस्तु लिखिए।
  25. प्रश्न- अनुसंधान प्ररचना के चरण लिखो।
  26. प्रश्न- अनुसंधान प्ररचना के उद्देश्य क्या हैं?
  27. प्रश्न- प्रतिपादनात्मक अथवा अन्वेषणात्मक अनुसंधान प्ररचना से आप क्या समझते हो?
  28. प्रश्न- 'ऐतिहासिक उपागम' से आप क्या समझते हैं? इस उपागम (पद्धति) का प्रयोग कैसे तथा किन-किन चरणों के अन्तर्गत किया जाता है? इसके अन्तर्गत प्रयोग किए जाने वाले प्रमुख स्रोत भी बताइए।
  29. प्रश्न- वर्णात्मक शोध अभिकल्प की व्याख्या करें।
  30. प्रश्न- प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प क्या है? इसके विविध प्रकार क्या हैं?
  31. प्रश्न- प्रयोगात्मक शोध का अर्थ, विशेषताएँ, गुण तथा सीमाएँ बताइए।
  32. प्रश्न- पद्धतिपरक अनुसंधान की परिभाषा दीजिए और इसके क्षेत्र को समझाइए।
  33. प्रश्न- क्षेत्र अनुसंधान से आप क्या समझते है। इसकी विशेषताओं को समझाइए।
  34. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ व प्रकार बताइए। इसके गुण व दोषों की विवेचना कीजिए।
  35. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख प्रकार एवं विशेषताएँ बताइये।
  36. प्रश्न- सामाजिक अनुसन्धान की गुणात्मक पद्धति का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- क्षेत्र-अध्ययन के गुण लिखो।
  38. प्रश्न- क्षेत्र-अध्ययन के दोष बताओ।
  39. प्रश्न- क्रियात्मक अनुसंधान के दोष बताओ।
  40. प्रश्न- क्षेत्र-अध्ययन और सर्वेक्षण अनुसंधान में अंतर बताओ।
  41. प्रश्न- पूर्व सर्वेक्षण क्या है?
  42. प्रश्न- परिमाणात्मक तथा गुणात्मक सर्वेक्षण का अर्थ लिखो।
  43. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ बताकर इसकी कोई चार विशेषताएँ बताइए।
  44. प्रश्न- सर्वेक्षण शोध की उपयोगिता बताइये।
  45. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण के विभिन्न दोषों को स्पष्ट कीजिए।
  46. प्रश्न- सामाजिक अनुसंधान में वैज्ञानिक पद्धति कीक्या उपयोगिता है? सामाजिक अनुसंधान में वैज्ञानिक पद्धति की क्या उपयोगिता है?
  47. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण के विभिन्न गुण बताइए।
  48. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण तथा सामाजिक अनुसंधान में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण की क्या सीमाएँ हैं?
  50. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण की सामान्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  51. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण की क्या उपयोगिता है?
  52. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण की विषय-सामग्री बताइये।
  53. प्रश्न- सामाजिक अनुसंधान में तथ्यों के संकलन का महत्व समझाइये।
  54. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण के प्रमुख चरणों की विवेचना कीजिए।
  55. प्रश्न- अनुसंधान समस्या से क्या तात्पर्य है? अनुसंधान समस्या के विभिन्न स्रोतक्या है?
  56. प्रश्न- शोध समस्या के चयन एवं प्रतिपादन में प्रमुख विचारणीय बातों का वर्णन कीजिये।
  57. प्रश्न- समस्या का परिभाषीकरण कीजिए तथा समस्या के तत्वों का विश्लेषण कीजिए।
  58. प्रश्न- समस्या का सीमांकन तथा मूल्यांकन कीजिए तथा समस्या के प्रकार बताइए।
  59. प्रश्न- समस्या के चुनाव का सिद्धान्त लिखिए। एक समस्या कथन लिखिए।
  60. प्रश्न- शोध समस्या की जाँच आप कैसे करेंगे?
  61. प्रश्न- अनुसंधान समस्या के प्रकार बताओ।
  62. प्रश्न- शोध समस्या किसे कहते हैं? शोध समस्या के कोई चार स्त्रोत बताइये।
  63. प्रश्न- उत्तम शोध समस्या की विशेषताएँ बताइये।
  64. प्रश्न- शोध समस्या और शोध प्रकरण में अंतर बताइए।
  65. प्रश्न- शैक्षिक शोध में प्रदत्तों के वर्गीकरण की उपयोगिता क्या है?
  66. प्रश्न- समस्या का अर्थ तथा समस्या के स्रोत बताइए?
  67. प्रश्न- शोधार्थियों को शोध करते समय किन कठिनाइयों का सामना पड़ता है? उनका निवारण कैसे किया जा सकता है?
  68. प्रश्न- समस्या की विशेषताएँ बताइए तथा समस्या के चुनाव के अधिनियम बताइए।
  69. प्रश्न- परिकल्पना की अवधारणा स्पष्ट कीजिये तथा एक अच्छी परिकल्पना की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  70. प्रश्न- एक उत्तम शोध परिकल्पना की विशेषताएँ बताइये।
  71. प्रश्न- उप-कल्पना के परीक्षण में होने वाली त्रुटियों के बारे में उदाहरण सहित बताइए तथा इस त्रुटि से कैसे बचाव किया जा सकता है?
  72. प्रश्न- परिकल्पना या उपकल्पना से आप क्या समझते हैं? परिकल्पना कितने प्रकार की होती है।
  73. प्रश्न- उपकल्पना के स्रोत, उपयोगिता तथा कठिनाइयाँ बताइए।
  74. प्रश्न- उत्तम परिकल्पना की विशेषताएँ लिखिए।
  75. प्रश्न- परिकल्पना से आप क्या समझते हैं? किसी शोध समस्या को चुनिये तथा उसके लिये पाँच परिकल्पनाएँ लिखिए।
  76. प्रश्न- उपकल्पना की परिभाषाएँ लिखो।
  77. प्रश्न- उपकल्पना के निर्माण की कठिनाइयाँ लिखो।
  78. प्रश्न- शून्य परिकल्पना से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए।
  79. प्रश्न- उपकल्पनाएँ कितनी प्रकार की होती हैं?
  80. प्रश्न- शैक्षिक शोध में न्यादर्श चयन का महत्त्व बताइये।
  81. प्रश्न- शोधकर्त्ता को परिकल्पना का निर्माण क्यों करना चाहिए।
  82. प्रश्न- शोध के उद्देश्य व परिकल्पना में क्या सम्बन्ध है?
  83. प्रश्न- महत्वशीलता स्तर या सार्थकता स्तर (Levels of Significance) को परिभाषित करते हुए इसका अर्थ बताइए?
  84. प्रश्न- शून्य परिकल्पना में विश्वास स्तर की भूमिका को समझाइए।

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